जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

महर्षि बाल्मीकि कृति रामायण का प्रसंग है, लंका पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त उसकी भव्यता से मुग्ध होकर लक्ष्मण ने लंका पर शासन करने का सुझाव दिया तब प्रभु श्री राम अनुज लक्ष्मण से कहा यद्यपि यह लंका सोने की बनी है फिर भी इसमें मेरी लेशमात्र रूचि नहीं है क्योकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

यह प्रसंग आज भी हमारे लिए सर्वाधिक प्रेरणादायी है, क्योकि जननी (अर्थात जन्मदेने वाली माँ) और जन्मभूमि के प्रति सर्वोच्च सम्मान हमारा प्रथम नैतिक दायित्व है।

आदर्श, मर्यादा और त्याग के प्रतिमान प्रभु श्रीरामचन्द्र जी का सम्पूर्ण जीवन हमारे लिए अगिनित शिक्षाओं और आदर्शों से परिपूर्ण है, जिनमें से प्रमुख शिक्षाओं को जीवन में उतार कर ही आदर्श व्यक्तित्व, आदर्श समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है।

प्रभु राम के जीवन की मूल शिक्षा यह है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, वह हमेशा सत्य से पराजित होगी। सच की हमेशा जीत होती है, झूठ कितना भी शातिर क्यों न हो। बुराई पर अच्छाई की जीत एक सार्वभौमिक सत्य है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के पास एक महान दिल और उच्च नैतिक मूल्य होते हैं। भगवान् राम के जीवन में अनेक कठिनियाँ आई पर उन्होंने सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ा, वो हमेशा सत्य के मार्ग पर चले जबकि उस समय एक महाज्ञानी, भगवान् शिव के भक्त और महान योद्धा रावण ने असत्य और अहंकार का सहारा लिया था, जिस कारण उसका सर्वस्त्र नास हुआ। भगवान् राम ने उसको और उसके अहंकार को मिटा कर सत्य की स्थापना की।

अत्यंत बलशाली बालि को भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा क्योकि उसने असत्य का मार्ग चुना था। महर्षि वाल्मीकि का कथन है कि जिन्हें धर्म का सच्चा ज्ञान है उनके अनुसार सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। मनुष्य को कितना भी कष्ट सहना पड़े अंततः सत्य की ही जीत होती है।

आज हम छोटी छोटी बातों पर अपना धीरज खो देते हैं और सत्य के मार्ग से विमुख हो जाते हैं, जबकि भगवन राम का जीवन चरित हमारे लिए उदाहरण है की सत्य के मार्ग पर चलते हुए हमें कभी घबराना नहीं चाहिए।

अपनी बात पर अडिग रहने वाले और किसी भी परिस्थिति में दिए गए वचनों का पालन करने वाले लोग ही हमेशा याद किये जाते हैं, हमें रामायण के विभीन्न चरित्रों से यही शिक्षा मिलती है।

रघुकुल रीति सदा चाली आई, प्राण जाय पर वचन न जाई।

राजा दशरथ ने अपने कुल की इस रीति का बखूबी निर्वहन किया, अपने प्राण त्याग दिए पर पत्नी कैकेई को दिए वचनों से कभी पीछे नहीं हटे।

भगवान राम जब वन जाने लगे तो उनकी माताओं ने पुत्र वियोग में अस्वस्थ्य हो गए पिता दशरथ की स्थिति दिखाकर उन्हें रोकना चाह तो उन्होंने यह देखकर कहा ‘दुर्लभं हि सदा सुखं’ अर्थात मनुष्य के लिए सदा सुखी रह पान संभव नहीं है, उन्होंने एक आदर्श प्रस्तुत करते हुए ‘पिता से अधिक पिता के वचनों की मर्यादा रखी।‘

अगर हम आपको वनों में जाकर जीवन यापन करना पड़ जाए तो आज की स्थिति में यह हमारे लिए बिलकुल आसान नहीं होगा, सीता जी तो राजकुमारी थी, राज जनक के घर पूरे वैभव में पली बढ़ी, पर जब पति को वनवास हुआ तो उन्होंने पतिव्रता धर्म निभाते हुए वन जाना पसंद किया, यह उनका संबंधों के प्रति वचन बद्धता का परिचायक है। दोबारा जब प्रभु श्रीराम जी ने सीता का त्याग किया तो वे गर्भवती थी परन्तु एक आदर्श रानी होने की शिक्षा दी,अपनी प्रजा की इच्छाओं व अपने पति पर राजधर्म के पालन के लिए उन्होंने पुनः वनगमन स्वीकार किया।

हनुमान जी अत्यंत बलशाली और बुद्धिमान होने के साथ स्वामिभक्ति के लिए हम सभी के लिए आदर्श हैं, उन्होंने हमेशा प्रभु श्रीराम को कठिनाइयों से बचाया, और अपनी स्वामी भक्ति का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया यह प्रभि श्रीराम के प्रति हनुमान जी का समर्पण था, भगवान राम के अनुज लक्ष्मण हमेश उनके साथ रहे, माता कैकेई ने जब राम के लिए 14 वर्ष का वनवास माँगा तब लक्ष्मण जी भी उनके साथ गए और अपने वचनबद्धता के संकल्प को कभी पीछे नहीं छोड़ा। भगवान् राम के वन जाने पश्चात भरत ने उनकी चरण पादुकाएं राज सिंहासन पर रख स्वयं कुतिया में रहते रहते थे, उन्होंने एक आदर्श भाई के चरित्र और वचन बद्धता को दर्शाया, आज के समय में हमें इस प्रकार वचनबद्धता की शिक्षा ग्रहण करनी है, तभी एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण संभव हो सकेगा।

राजा दशरथ की तीन पत्नियां और चार बेटे थे, सभी के बीच परस्पर लगाव था परन्तु उनके जीवन में जब उन्हें कठिन समय से गुजरना पड़ा, तब भी उनका दिल एकजुट हो गया जब वे शारीरिक रूप से अलग थे। हमें हमेशा अपने परिवार के साथ खड़ा होना चाहिए क्योंकि जब एक साथ एक परिवार किसी भी कठिनाई पर जीत हासिल कर सकता है। एकजुटता का फल तब भी जहाज को आगे बढ़ने की शक्ति देता है जब ज्वार आकाश से भी ऊंचा लगने लगता है।

राजा दशरथ ने सदैव अपने परिवार को महत्व दिया, रानी कौशिल्या ने हमेशा उन्हें उच्च आदर्शों के लिए प्रेरित किया तो रानी कैकेई युद्ध और आखेट के लिए भी उनके साथ जाती थी, कई बार उन्होंने राजा दशरथ को विपरीत परिस्थितियों में सहारा दिया, उनके प्राणों की रक्षा की, संबासुर नामक राक्षस ने जब रजा दशरथ को घायल कर दिया तो कैकेई ने उनके प्राण बचाए तभी उन्होंने कैकेई को 2 वरदान भी दिए थे। भगवान् राम ने भी परिवार के आदर्शों की रक्षा के लिए वन जाने के निर्मन्य को सहर्ष चुना, जबकि भरत ने राजपाठ पाने के बाद भी राज गद्दी नहीं स्वीकारी, लक्ष्मण जी हमेशा श्रीराम के साथ रहे, उनके साथ रावण से युद्ध किया और अत्यंत बलशाली मेघनाद का वध किया, यह संभव हो सका संबंधों पर अटूट विश्वास के कारण , जिसकी आज के परिपेक्ष्य में सर्वाधिक आवश्यकता है।

एक आभासी स्थिति जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता परन्तु वह हमारी आँखों से दिखता है और मष्तिष्क उस पर विचार करने लगता है उसे मृगतृष्णा कहते हैं। आज के समय में भी देखा जाता है, हम जीवन में उन परिस्थितियों की कल्पना कर लेते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता है। राजा दशरथ ने एक आदर्श जीवन जिया 3 रानियाँ थी, 4 बेटे थे। बड़े बेटे राम का राज्याभिषेक होना था, पूरे राज्य में खुशियाँ मनाई जा रही थी, उसी समय दासी मंथरा के माध्यम से कैकेई के मन में एक काल्पनिक बात बैठा दी गयी की राम के राजा बनने से उनका महत्व कम हो जायेगा, भारत को रजा बनाना चाहिए, और इसी कपोलकल्पित बात ने अयोध्या राजभवन में ऐसी स्थिति पैदा की जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, दूसरा प्रसंग है वन में सीता माता प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी के साथ बैठी थी, उसी समय एक सोने का मृग सामने से निकला सीता जी को उसे प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो गयी।

यद्यपि सीता जी जानती थी की सोने का मृग नहीं होता है, लेकिन एक आभासी बात को सत्य मान लिया, जिसके परिणामतः सीताहरण हुआ, उनके तमाम कथ्तों का सामना करना पड़ा। आज भी अधिकाँश लोग इसी मृग मारीचिका रुपी आभासी स्थिति के कारण स्वयं और अपने स्वजनों को भी कष्ट में डालते हैं, इन परिस्थितियों में विवेक का पूर्ण उपयोग करना चाहिए यही मानव धर्म है। आज समाज में बढती अनैतिकता, आपसी अविश्वास, संबंधों में कटुता जैसी समस्याओं का समाधान मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम चन्द्र जी की चरित्र को अपने जीवन में उतार कर ही संभव है।

राजेश्वर सिंह